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एक मंदिर
उसमें रखी एक पत्थर की प्रतिमा
असंख्य लोग उसके दर्शन करके
अपने आपको समझते हैं धन्य
तथा प्रतिमा को करने के लिये प्रसन्न
हर कोई सामर्थ से अधिक
चढ़ावा चढ़ाता
कोई नहीं सोचता
वह चढ़ावा कहाँ जाता
और किसके काम आता
कोई नहीं सोचता
उस मजदूर,
राजमिस्त्री
और शिल्पकार के बारे में
बनाया था मंदिर जिसने
और मंदिर में रखी प्रतिमा को
आज उसके घर में विपत्तियों का दौर आया है
काम पाने के लिये
बेरोजगार होकर
घूम रहा है
उसके बच्चे बिलख रहे हैं
भूख से
एक एक दाने के लिये
पत्नि के फटे वस्त्र
असमर्थ हैं
उसकी लज्जा छिपाने के लिये
बीमार माँ
खाँस रही है
रात रात भर
दवा के अभाव में
क्योंकि उसे
हो गया है
तपेदिक
यह देख कर
मेरा हृदय
हो गया है उद्देलित
आँखें हो गई है दृवित
मन हो गया व्यथित
अश्क स्याही बनकर
कर गये
कविता का सृजन
मानव कब
पाषाण को छोड़
पूजेगा मानव को
कब बदलेगी
मानव की निष्ठा
मंदिर में
पत्थर की प्राण प्रतिष्ठा की जगह
कब होगी
मानवता की प्राण प्रतिष्ठा
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